राजा राम मोहन राय: भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत! जीवन परिचय और रोचक तथ्य

18वीं-19वीं शताब्दी के भारत में एक ऐसा शख्स हुआ, जिसने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाकर भारतीय समाज में सुधार लाने का बीड़ा उठाया। यह लेख राजा राम मोहन राय के जीवन, उनके कार्य...

राजा राम मोहन राय: भारतीय पुनर्जागरण के...
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राजा राम मोहन राय: भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत

राजा राम मोहन राय (1772-1833) भारतीय इतिहास में एक महान समाज सुधारक, धार्मिक चिंतक और शिक्षाविद के रूप में विख्यात हैं। उन्हें "भारतीय पुनर्जागरण का जनक" और "आधुनिक भारत का पिता" भी कहा जाता है। सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों के खिलाफ उन्होंने जो निरंतर संघर्ष किया, उसका भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधानगर (आधुनिक हुगली जिला) में हुआ था। उनका परिवार एक संपन्न ब्राह्मण परिवार था। प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत और फारसी में प्राप्त करने के बाद, वह पटना चले गए, जहाँ उन्होंने अरबी और फारसी साहित्य का गहन अध्ययन किया। इस दौरान वे इस्लाम, ईसाई धर्म और वेदांत दर्शन से भी परिचित हुए। अरबी के माध्यम से उन्होंने यूनानी दार्शनिकों जैसे प्लेटो और अरस्तू के विचारों को भी जाना। विभिन्न धर्मों और दर्शनों के अध्ययन ने उनके वैचारिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

धार्मिक और सामाजिक सुधार

राजा राम मोहन राय ने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, खासकर सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। सती प्रथा के तहत, विधवा स्त्री को मृत पति के साथ चिता पर जला दिया जाता था। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए निरंतर प्रयास किए। 1829 में उनके अथक प्रयासों से सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया।

उन्होंने बाल विवाह, बहु-विवाह और जाति व्यवस्था के कठोर नियमों का भी विरोध किया। उनका मानना था कि सभी मनुष्य समान हैं और धर्म का आधार कर्म होना चाहिए, जन्म नहीं।

1814 में उन्होंने "आत्मीय सभा" की स्थापना की, जिसका उद्देश्य तर्कसंगत धार्मिक चर्चाओं को बढ़ावा देना और धार्मिक रूढ़ियों का खंडन करना था। 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य एकेश्वरवाद, मूर्तिपूजा का खंडन और शास्त्रों की तर्कसंगत व्याख्या को बढ़ावा देना था। ब्रह्म समाज ने भारतीय समाज सुधार आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

शिक्षा और पत्रकारिता

राजा राम मोहन राय ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका मानना था कि आधुनिक शिक्षा पद्धति जरूरी है। उन्होंने 1815 में कलकत्ता में अंग्रेजी माध्यम का पहला स्कूल खोला, जहाँ भारतीय और पश्चिमी शिक्षा का समावेश था। उन्होंने बंगाली और फारसी भाषा में कई समाचार पत्रों का भी प्रकाशन किया, जिनके माध्यम से उन्होंने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया।

विदेश यात्रा और मृत्यु

1830 में राजा राम मोहन राय ब्रिटिश साम्राज्य के दूत के रूप में ब्रिटेन गए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से भारत में सामाजिक सुधारों का समर्थन करने का आग्रह किया। वह भारत के हितों के लिए काम करते हुए इंग्लैंड में ही 27 सितंबर, 1833 को ब्रिस्टल शहर में निधन हो गए।

विरासत

राजा राम मोहन राय का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाकर एक नया भारत बनाने का प्रयास किया। उनके कार्यों से भारतीय पुनर्जागरण को बल मिला और भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। उनका प्रभाव सामाजिक सुधार आंदोलन से आगे निकलकर, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी परिलक्षित हुआ। राष्ट्रीय चेतना जगाने और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज उठाने में उनके विचारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

राजा राम मोहन राय को एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी व्यक्ति माना जाता है। उनका व्यक्तित्व सामाजिक सुधारक, धार्मिक चिंतक, शिक्षाविद, पत्रकार और राजनीतिक विचारक के रूप में समृद्ध था। उन्होंने तर्क और विवेकबुद्धि पर बल दिया और आधुनिक भारत के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने की प्रेरणा: राजा राम मोहन राय की कहानी

राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और इसे समाप्त करने के लिए अथक प्रयास किए। यह क्रूर प्रथा, जिसमें पति की मृत्यु के बाद विधवा को उसी चिता पर जला दिया जाता था, सदियों से भारतीय समाज में व्याप्त थी।

राजा राम मोहन राय के सती प्रथा के विरोध के पीछे कई कारण थे, जिनमें से एक उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी एक दर्दनाक घटना भी थी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनकी बचपन में ही उनकी किसी करीबी महिला रिश्तेदार, शायद उनकी भाभी को, सती प्रथा के तहत जला दिया गया था। उन्होंने विरोध करने की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ

यह घटना उनके युवा मन पर गहरा प्रभाव डाल गई थी और उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ विद्रोह का बीज बो दिया था। सती प्रथा के खिलाफ उनका विरोध सिर्फ तर्क और नैतिकता पर आधारित नहीं था, बल्कि इसमें उनके निजी अनुभव की पीड़ा भी शामिल थी।

उन्होंने अपनी आंखों से देखा था कि कैसे एक महिला को, जिसे शायद जीने की इच्छा थी, उसे जबरदस्ती मौत के घाट उतार दिया गया। यह दृश्य उनके जीवन भर उनके साथ रहा और उन्हें सती प्रथा के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करता रहा।

यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है कि राजा राम मोहन राय की भाभी को सती प्रथा के तहत जला दिया गया था या नहीं, क्योंकि इस घटना का कोई लिखित प्रमाण नहीं है।

लेकिन यह स्पष्ट है कि उन्होंने बचपन में ही किसी करीबी महिला रिश्तेदार की मृत्यु का अनुभव किया था, जिसने सती प्रथा के खिलाफ उनकी भावनाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यह व्यक्तिगत त्रासदी उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया और उन्हें भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया।

उनके अथक प्रयासों और आंदोलन के फलस्वरूप 1829 में ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया, जो भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण सुधार था।

राजा राम मोहन राय की कहानी हमें सिखाती है कि कैसे व्यक्तिगत अनुभव सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरणा बन सकते हैं।

उनका साहस और दृढ़ संकल्प हमें भी प्रेरित करता है कि हम गलत के खिलाफ आवाज उठाएं और एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रयास करें।

राजा राम मोहन राय का जीवन परिचय

पहलू 

विवरण 

जन्म 

22 मई, 1772

जन्मस्थान 

राधानगर, बंगाल (आधुनिक हुगली जिला)

मृत्यु 

27 सितंबर, 1833

मृत्यु स्थान

ब्रिस्टल, इंग्लैंड

पिता

रमाकांत राय

राजा राम मोहन राय के बारे में कुछ अनोखी जानकारियाँ

विविध भाषाओं का ज्ञान: राजा राम मोहन राय एक बहुभाषाविद थे। मात्र 15 वर्ष की आयु तक वे बंगाली, संस्कृत, फारसी, अरबी और हिंदी भाषाओं में पारंगत हो चुके थे। बाद में उन्होंने अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया।

ईस्ट इंडिया कंपनी में कार्य: राजा राम मोहन राय ने 1809 से 1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दीवान के रूप में कार्य किया। इस दौरान उन्होंने कंपनी की कार्यप्रणाली और ब्रिटिश शासन की वास्तविकताओं को गहराई से समझा।

पश्चिमी विचारधारा से प्रभाव: राजा राम मोहन राय पश्चिमी दर्शन और विज्ञान से काफी प्रभावित थे। उन्होंने प्लेटो, अरस्तू और जॉन लोके जैसे विचारकों के कार्यों का अध्ययन किया और उनसे प्रेरणा लेकर भारतीय समाज सुधार की दिशा में कार्य किया।

भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक: राजा राम मोहन राय को "भारतीय भाषायी प्रेस का जनक" भी माना जाता है। उन्होंने बंगाली और फारसी भाषा में समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। इससे न केवल जनजागृति फैली बल्कि भारतीय भाषाओं के विकास को भी बल मिला।

विदेश यात्रा और कूटनीति: 1830 में राजा राम मोहन राय ब्रिटिश साम्राज्य के दूत के रूप में इंग्लैंड गए। वहां उन्होंने ब्रिटिश सरकार से भारत में सामाजिक सुधारों का समर्थन करने और भारतीयों के हितों की रक्षा करने का आग्रह किया।

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