परिचय
तानसेन (Tansen) भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे महान गायक और रचनाकार माने जाते हैं। उन्हें "संगीत सम्राट" और "मियां तानसेन" के नाम से भी जाना जाता है। तानसेन का नाम अकबर के दरबार में नवरत्नों (Nine Gems) में शामिल था। वे ध्रुपद शैली के अप्रतिम गायक और रचनाकार थे, जिन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
तानसेन का जन्म लगभग 1500 ईस्वी के आसपास ग्वालियर (मध्य प्रदेश) के एक गाँव में हुआ माना जाता है। उनके पिता का नाम मुकुंद मिश्रा था। बचपन से ही तानसेन को संगीत में रुचि थी। किंवदंती के अनुसार, बचपन में वे जंगलों में रहकर पक्षियों और जानवरों की आवाज़ों की नकल करने में माहिर थे।
उनके संगीत जीवन की शुरुआत हरिदास स्वामी के शिष्यत्व से हुई। हरिदास जी विख्यात संत और संगीतज्ञ थे, जिन्होंने तानसेन को राग, सुर और ताल की गहराई से शिक्षा दी।
गुरु और संगीत शिक्षा
तानसेन ने संगीत की शिक्षा मुख्यतः स्वामी हरिदास से प्राप्त की। हरिदास जी ने ही तानसेन के भीतर छिपी हुई कला को पहचाना और उन्हें भक्ति-संगीत तथा ध्रुपद गायन में निपुण बनाया। बाद में तानसेन ने संगीतज्ञ मोहम्मद गौस ग्वालियरी से भी शिक्षा ली।
दरबारी जीवन और अकबर का संरक्षण
तानसेन का जीवन बदल गया जब वे अकबर के दरबार में शामिल हुए। सम्राट अकबर संगीत के बड़े प्रेमी थे। तानसेन की आवाज़ और रागों की अनोखी रचना से अकबर बेहद प्रभावित हुए और उन्हें अपने "नवरत्नों" में शामिल कर लिया। दरबार में तानसेन का दर्जा इतना ऊँचा था कि उन्हें संगीत का "रत्न" माना जाता था।
प्रमुख राग और रचनाएँ
तानसेन ने कई रागों का विकास और प्रस्तुति की। उन्हें "मियां" उपाधि अकबर ने दी थी, और उनके नाम से जुड़े कई राग आज भी प्रचलित हैं:
- मियां की टोड़ी
- मियां का सारंग
- मियां की मल्हार
- दरबारी कान्हड़ा
इन रागों की रचना और गायन शैली ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को एक नई पहचान दी।
तानसेन और लोककथाएँ
तानसेन से जुड़ी कई रोचक कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जब वे "दीपक राग" गाते थे, तो दीपक अपने आप जल उठते थे। वहीं "मेघ मल्हार" राग गाने से वर्षा होने लगती थी। हालांकि ये कथाएँ किंवदंती अधिक हैं, लेकिन इनसे यह जरूर पता चलता है कि तानसेन का प्रभाव उनके श्रोताओं पर कितना गहरा था।
संगीत पर योगदान
तानसेन ने ध्रुपद गायन को दरबारी मंच तक पहुँचाया और उसे आम जनता में लोकप्रिय बनाया। उनकी रचनाओं और प्रयोगों ने शास्त्रीय संगीत को संरचित और समृद्ध किया। उनके योगदान के कारण ही आज उन्हें "भारतीय संगीत का पिता" भी कहा जाता है।

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