कबीर दास का प्रसिद्ध दोहा: चलना है दूर मुसाफ़िर काहे सोवे रे
“चलना है दूर मुसाफ़िर काहे सोवे रे” — यह केवल एक पंक्ति नहीं, बल्कि मानव जीवन का संपूर्ण दर्शन है। यह पंक्ति हमें चेतावनी देती है कि जीवन एक क्षणभंगुर यात्रा है, जिसे हमें जागरूक होकर पार करना चाहिए। कबीरदास इस दोहे के माध्यम से हमें कर्म, जागरूकता और आत्म-साक्षात्कार का संदेश देते हैं।
चलना है दूर मुसाफ़िर काहे सोवे रे। चेत अचेत नर सोच बावरे, बहुत नींद मत सोवे रे।।
भावार्थ (Stanza 1)
कबीरदास कहते हैं — “हे मानव! तू चेतन है फिर भी अचेत होकर सोया हुआ है। अपने जीवन के उद्देश्य पर विचार कर। नींद (अज्ञान) में मत सो क्योंकि यह जीवन अनमोल है।”
यहाँ “सोना” शारीरिक नहीं बल्कि अज्ञान, मोह, क्रोध और लोभ में फँसना है। मनुष्य की आत्मा जाग्रत है, लेकिन उसकी बुद्धि सांसारिक मोह में बंधकर निष्क्रिय हो जाती है। कबीर चेतावनी देते हैं कि समय निकल रहा है, उठो, सोचो और अपने असली उद्देश्य को पहचानो।
जीवन दर्शन
कबीर का यह दोहा mindfulness और spiritual awakening का प्रतीक है। वे कहते हैं कि जीवन में दो प्रकार के लोग हैं — चेत (जागे हुए) और अचेत (सोए हुए)। चेत व्यक्ति समय की कीमत समझता है, जबकि अचेत व्यक्ति अंधकार में भटकता है।
मनुष्य का कर्तव्य है कि वह काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे चार शत्रुओं से मुक्त होकर अपने वास्तविक आत्मा स्वरूप को पहचाने।
काम, क्रोध, मद, लोभ में फंसकर, उमरिया काहे खोवे रे।।
आध्यात्मिक अर्थ
यह पंक्ति बताती है कि जीवन एक दुर्लभ अवसर है — इसमें आत्मा को मुक्त करना ही असली उद्देश्य है। लेकिन मनुष्य इन विकारों में फँसकर अपनी उम्र व्यर्थ कर देता है। “उमरिया खोवे” का अर्थ है — समय और ऊर्जा को गलत दिशाओं में खर्च करना।
आधुनिक मनोवैज्ञानिक अर्थ
आधुनिक दृष्टिकोण से यह संदेश mental awareness की बात करता है। जब व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं में डूबा होता है, तो उसका “conscious mind” सो जाता है। कबीरदास का यह दोहा उसी “awakening of consciousness” की प्रेरणा देता है।
सिर पर माया मोह की गठरी
सिर पर माया मोह की गठरी, संग दूत तेरे होवे रे। सो गठरी तेरी बीच में छिन गई, मूढ़ पकड़ कहाँ रोवे रे।।
भावार्थ (Stanza 2)
कबीर कहते हैं कि मनुष्य अपने सिर पर “माया और मोह” की गठरी (थैला) लेकर चलता है। यह गठरी उसके जीवन का बोझ बन जाती है। जब मृत्यु का दूत (यमराज) उसे लेने आता है, तब यह गठरी उससे छिन जाती है — यानी वह सारा धन, पद, प्रतिष्ठा वहीं रह जाती है।
कबीर का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति माया के बोझ से दबा हुआ है, वह अंत में हाथ मलता रह जाता है।
दार्शनिक व्याख्या
“माया” यहाँ केवल धन नहीं, बल्कि अहंकार, लोभ और स्वार्थ का प्रतीक है। “गठरी” इस बात का प्रतीक है कि इंसान ने अपने सिर पर जीवन का बोझ स्वयं रखा है।
जब मृत्यु आती है, तब यह सब यहीं छूट जाता है। इसलिए कबीर चेताते हैं — जीवन में मोह-माया की गठरी को हल्का करो, क्योंकि अंततः साथ कुछ नहीं जाएगा।
आधुनिक संदर्भ
आज के समय में यह दोहा हमें बताता है कि “material success” आवश्यक है लेकिन “spiritual balance” उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा को भूलकर केवल भौतिक वस्तुओं का संचय करता है, वह जीवन के असली आनंद से वंचित रह जाता है।
कबीर के शब्दों में, “मूढ़” वह है जो अंत तक इस माया को पकड़कर रोता रहता है।
“सो गठरी तेरी बीच में छिन गई, मूढ़ पकड़ कहाँ रोवे रे।” — यह वाक्य हमें विरक्ति और विवेक की सीख देता है।
रास्ता कठिन और एकाकी यात्रा
रस्ता तो दूर कठिन है, चल अब अकेला होवे रे। संग साथ तेरे कोई न चलेगा, काट डगरिया होवे रे।।
भावार्थ (Stanza 3)
कबीर यहाँ जीवन को एक कठिन रास्ते से तुलना करते हैं। वे कहते हैं कि यह मार्ग लंबा और कठिन है, इसलिए इसे पार करने के लिए मनुष्य को “अकेला” चलना होगा। इस संसार में कोई भी आपका स्थायी साथी नहीं है — न धन, न परिवार, न संबंध।
अंततः यह यात्रा आत्मा की है, जो अकेले प्रारंभ हुई थी और अकेले ही समाप्त होगी।
कबीर का दर्शन
यह दोहा हमें “Self-Reliance” और “Detachment” की शिक्षा देता है। कबीर कहते हैं कि जब आत्मा का लक्ष्य मोक्ष है, तो व्यक्ति को अपने भीतर की शक्ति पर विश्वास रखना होगा।
“काट डगरिया होवे रे” — यह पंक्ति जीवन के संघर्ष का प्रतीक है। राह कठिन है, लेकिन जो निर्भय होकर चलता है, वही मंज़िल पाता है।
आध्यात्मिक महत्व
यह दोहा “वैराग्य” का प्रतीक है। मनुष्य को अपने भीतर स्थित आत्मा पर भरोसा करके ही यह कठिन यात्रा पूरी करनी है। किसी बाहरी सहारे से मुक्ति नहीं मिलेगी।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि
कबीरदास का यह संदेश बताता है कि आत्म-विकास (Self-Growth) की यात्रा हमेशा अकेली होती है। यह “Inner Transformation” का मार्ग है जहाँ कोई दूसरा आपकी जगह नहीं चल सकता।

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